प्रेम क्या है ?
प्रेम इन ढाई अक्षरोंमें सारे अध्यात्म का सार आ जाता है। प्रेम को हम अनेक आयामों में देखते है। हर तरह का प्रेम जीवनमें सुंदरता, पूर्णता और खुशी लाता है। पर उस so called व्यावहारिक प्रेम की सीमाएँ भी होती है।
क्यूं की हमारी भावनाओंमें प्रेम है, इसलिए हमें हवाओमें उमंग महसूस होती है। चाहे हम एक पेड को देखे या कुत्ते को या बच्चेको या आसमाँ को, बात आसमान से प्रेम करनेकी नहीं है, बात हमारी भावनाकी मिठास की है, अगर हमारी भावना में मिठास है, तो हम जिस भी चीज को देखेंगें तो एक विषेष तरीकेसे देखेंगे, तो प्रेम अंदर की बात है, हमने प्रेम को हमेशा किसी से संबंधित माना है, पर ये किसी के बारेमें नहीं है, प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं है की जो हम करतें हैं, हम प्रेम ही हो सकते हैं। और खुश रह सकते हैं। प्रेम सिर्फ देने की बात है, माँगने की बात कभी नहीं होती। हमारे प्रेम पात्र के खुशीमें हमारी खुशी समाहित है।
प्रेम का अर्थ कुछ पा लेना नहीं है। प्रेम का अर्थ है स्वयं के अहंकार को मिटा देना - ये मन की अवस्था है। परमात्मा प्रेम स्वरूप है और हम ही शुध्द स्वरूप में परमात्मा है, तो हमें पहले अपनेसे प्रेम होना चाहीए, हमने खुद को स्वीकार करना चाहीए। अगर हम खुद को प्रेम नहीं करते तो दूसरा कोई कैसे करेगा, और फिर हम प्रेम बाँटेंगे भी कैसे?