दु:ख क्या है?
हम आनंद स्वरूप हैं, उसमें दु:ख का कोई स्थान नहीं है| फिर भी दु:ख का अस्तित्व दिखाई देता है, दु:ख का अनुभव होता है| दु:ख हमारी निर्मिती है, किसी दूसरे की कारीगिरी नहीं है।
दु:ख का प्लस पॉइंट ये है की दु:खोंसे बुध्दी आती है। हमारा मन ही हमारे दु:ख का कारण है, और सुख का कारण भी मन है| वास्तव में सुख भी दु:ख ही होता है, ये हम समझ नहीं पाते, क्यूं की दोनों कंपन है, एक इस अति पर, और दूसरा उस अति पर, और समत्व हमारा स्वरूप है| जिंदगी दोहरी है, सुख होगा तो दु:ख भी होगा, जय-पराजय, लाभ-हानी, स्तुती-निंदा, श्रीमंती-गरीबी दोनों होंगे जिंदगी में| ऐसा नहीं हो सकता की जिंदगी में सिर्फ सुख ही सुख हो, जय ही जय हो, लाभ ही लाभ हो की जो हम चाहते है| दु:ख के बिना सुख का, पराजय के बिना जय का, खट्टे के बिना मीठे का, गरीबी के बिना श्रीमंती का अस्तित्व हो नहीं सकता, उसका कोई मूल्य नहीं हो सकता| दिनमें सिर्फ मीठा ही मीठा खाते रहते ऐसा हम भी नहीं करते| दु:ख को हम मिटा नहीं सकते, पर उसे परिवर्तित किया जा सकता है, उपर उठनेके लिए उसका उपयोग किया जा सकता है|
जिंदगी चुनौतियें के बिना हो नहीं हो सकती, जितनी जादा चुनौतियाँ उतनी जादा तरक्की होने की संभावना होती है, हर एक के जीवनमें दु:ख आये हैं, श्रीराम और श्रीकृष्ण भी अपवाद नहीं रहे, उनके जीवनमें तो जादा ही चुनौती थी, दु:ख उनका कुछ नहीं बिगाड सका, वे समत्व में थे, इसलिए अलौकिक भी थे| जीवन जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना चाहीए, दु:ख आया तो उसे भी पूरे रूप से भोगना चाहीए, और छोड देना चाहीए तो आगे जिंदगी हमें सुख के अनेक मौके देती है, अगर हम एक ही दु:ख को बार बार चबाते रहेंगे तो सामने आया हुआ सुख भी हमें दिखाई नहीं देगा| अगर हम हर स्थिती में समत्व में, मध्यमें रह सकते है तो हम अपने आनंद को प्राप्त हो सकते है, क्यूं की सुख-दु:ख आदि आनेजानेवाली चीजें है, हमारा स्वरूप उनसे परे हैं, और स्वरूप में हम तृप्त, पूर्ण होते हैं| दु:ख अनेक तरह से आता है, तो उसका विश्लेषण करना चाहीए और दु:ख को अपने मनसे मिटाना चाहीए
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